पवित्र बाइबिल - Hindi Holy Bible

अध्याय   1  2  3  4  5  6  7  8  9  10  11  12  

 सभोपदेशक - अध्याय 1

1 यरूशलेम के राजा, दाऊद के पुत्र और उपदेशक के वचन।

2 उपदेशक का यह वचन है, कि व्यर्थ ही व्यर्थ, व्यर्थ ही व्यर्थ! सब कुछ व्यर्थ है।

3 उस सब परिश्रम से जिसे मनुष्य धरती पर करता है, उसको क्या लाभ प्राप्त होता है?

4 एक पीढ़ी जाती है, और दूसरी पीढ़ी आती है, परन्तु पृथ्वी सर्वदा बनी रहती है।

5 सूर्य उदय हो कर अस्त भी होता है, और अपने उदय की दिशा को वेग से चला जाता है।

6 वायु दक्खिन की ओर बहती है, और उत्तर की ओर घूमती जाती है; वह घूमती और बहती रहती है, और अपने चक्करों में लौट आती है।

7 सब नदियां समुद्र में जा मिलती हैं, तौभी समुद्र भर नहीं जाता; जिस स्थान से नदियां निकलती हैं; उधर ही को वे फिर जाती हैं।

8 सब बातें परिश्रम से भरी हैं; मनुष्य इसका वर्णन नहीं कर सकता; न तो आंखें देखने से तृप्त होती हैं, और न कान सुनने से भरते हैं।

9 जो कुछ हुआ था, वही फिर होगा, और जो कुछ बन चुका है वही फिर बनाया जाएगा; और सूर्य के नीचे कोई बात नई नहीं है।

10 क्या ऐसी कोई बात है जिसके विषय में लोग कह सकें कि देख यह नई है? यह तो प्राचीन युगों में वर्तमान थी।

11 प्राचीन बातों का कुछ स्मरण नहीं रहा, और होने वाली बातों का भी स्मरण उनके बाद होने वालों को न रहेगा॥

12 मैं उपदेशक यरूशलेम में इस्राएल का राजा था।

13 और मैं ने अपना मन लगाया कि जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है, उसका भेद बुद्धि से सोच सोचकर मालूम करूं; यह बड़े दु:ख का काम है जो परमेश्वर ने मनुष्यों के लिये ठहराया है कि वे उस में लगें।

14 मैं ने उन सब कामों को देखा जो सूर्य के नीचे किए जाते हैं; देखो वे सब व्यर्थ और मानो वायु को पकड़ना है।

15 जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं हो सकता, और जितनी वस्तुओं में घटी है, वे गिनी नहीं जातीं॥

16 मैं ने मन में कहा, देख, जितने यरूशलेम में मुझ से पहिले थे, उन सभों से मैं ने बहुत अधिक बुद्धि प्राप्त की है; और मुझ को बहुत बुद्धि और ज्ञान मिल गया है।

17 और मैं ने अपना मन लगाया कि बुद्धि का भेद लूं और बावलेपन और मूर्खता को भी जान लूं। मुझे जान पड़ा कि यह भी वायु को पकड़ना है॥

18 क्योंकि बहुत बुद्धि के साथ बहुत खेद भी होता है, और जो अपना ज्ञान बढ़ाता है वह अपना दु:ख भी बढ़ाता है॥

 सभोपदेशक - अध्याय 2

1 मैं ने अपने मन से कहा, चल, मैं तुझ को आनन्द के द्वारा जांचूंगा; इसलिये आनन्दित और मगन हो। परन्तु देखो, यह भी व्यर्थ है।

2 मैं ने हंसी के विषय में कहा, यह तो बावलापन है, और आनन्द के विषय में, उस से क्या प्राप्त होता है?

3 मैं ने मन में सोचा कि किस प्रकार से मेरी बुद्धि बनी रहे और मैं अपने प्राण को दाखमधु पीने से क्योंकर बहलाऊं और क्योंकर मूर्खता को थामे रहूं, जब तक मालूम न करूं कि वह अच्छा काम कौन सा है जिसे मनुष्य जीवन भर करता रहे।

4 मैं ने बड़े बड़े काम किए; मैं ने अपने लिये घर बनवा लिए और अपने लिये दाख की बारियां लगवाईं;

5 मैं ने अपने लिये बारियां और बाग लगावा लिए, और उन में भांति भांति के फलदाई वृक्ष लगाए।

6 मैं ने अपने लिये कुण्ड खुदवा लिए कि उन से वह वन सींचा जाए जिस में पौधे लगाए जाते थे।

7 मैं ने दास और दासियां मोल लीं, और मेरे घर में दास भी उत्पन्न हुए; और जितने मुझ से पहिले यरूशलेम में थे उन से कहीं अधिक गाय-बैल और भेड़-बकरियों का मैं स्वामी था।

8 मैं ने चान्दी और सोना और राजाओं और प्रान्तों के बहुमूल्य पदार्थों का भी संग्रह किया; मैं ने अपने लिये गवैयों और गानेवालियों को रखा, और बहुत सी कामिनियां भी, जिन से मनुष्य सुख पाते हैं, अपनी कर लीं॥

9 इस प्रकार मैं अपने से पहिले के सब यरूशलेमवासियों अधिक महान और धनाढय हो गया; तौभी मेरी बुद्धि ठिकाने रही।

10 और जितनी वस्तुओं के देखने की मैं ने लालसा की, उन सभों को देखने से मैं न रूका; मैं ने अपना मन किसी प्रकार का आनन्द भोगने से न रोका क्योंकि मेरा मन मेरे सब परिश्रम के कारण आनन्दित हुआ; और मेरे सब परिश्रम से मुझे यही भाग मिला।

11 तब मैं ने फिर से अपने हाथों के सब कामों को, और अपने सब परिश्रम को देखा, तो क्या देखा कि सब कुछ व्यर्थ और वायु को पकड़ना है, और संसार में कोई लाभ नहीं॥

12 फिर मैं ने अपने मन को फेरा कि बुद्धि और बावलेपन और मूर्खता के कार्यों को देखूं; क्योंकि जो मनुष्य राजा के पीछे आएगा, वह क्या करेगा? केवल वही जो होता चला आया है।

13 तब मैं ने देखा कि उजियाला अंधियारे से जितना उत्तम है, उतना बुद्धि भी मूर्खता से उत्तम है।

14 जो बुद्धिमान है, उसके सिर में आंखें रहती हैं, परन्तु मूर्ख अंधियारे में चलता है; तौभी मैं ने जान लिया कि दोनों की दशा एक सी होती है।

15 तब मैं ने मन में कहा, जैसी मूर्ख की दशा होगी, वैसी ही मेरी भी होगी; फिर मैं क्यों अधिक बुद्धिमान हुआ? और मैं ने मन में कहा, यह भी व्यर्थ ही है।

16 क्योंकि न तो बुद्धिमान का और न मूर्ख का स्मरण सर्वदा बना रहेगा, परन्तु भविष्य में सब कुछ बिसर जाएगा।

17 बुद्धिमान क्योंकर मूर्ख के समान मरता है! इसलिये मैं ने अपने जीवन से घृणा की, क्योंकि जो काम संसार में किया जाता है मुझे बुरा मालूम हुआ; क्योंकि सब कुछ व्यर्थ और वायु को पकड़ना है।

18 मैं ने अपने सारे परिश्रम के प्रतिफल से जिसे मैं ने धरती पर किया था घृणा की, क्योंकि अवश्य है कि मैं उसका फल उस मनुष्य के लिये छोड़ जाऊं जो मेरे बाद आएगा।

19 यह कौन जानता है कि वह मनुष्य बुद्धिमान होगा वा मूर्ख? तौभी धरती पर जितना परिश्रम मैं ने किया, और उसके लिये बुद्धि प्रयोग की उस सब का वही अधिकारी होगा। यह भी व्यर्थ ही है।

20 तब मैं अपने मन में उस सारे परिश्रम के विषय जो मैं ने धरती पर किया था निराश हुआ,

21 क्योंकि ऐसा मनुष्य भी है, जिसका कार्य परिश्रम और बुद्धि और ज्ञान से होता है और सफल भी होता है, तौभी उसको ऐसे मनुष्य के लिये छोड़ जाना पड़ता है, जिसने उस में कुछ भी परिश्रम न किया हो। यह भी व्यर्थ और बहुत ही बुरा है।

22 मनुष्य जो धरती पर मन लगा लगाकर परिश्रम करता है उस से उसको क्या लाभ होता है?

23 उसके सब दिन तो दु:खों से भरे रहते हैं, और उसका काम खेद के साथ होता है; रात को भी उसका मन चैन नहीं पाता। यह भी व्यर्थ ही है।

24 मनुष्य के लिये खाने-पीने और परिश्रम करते हुए अपने जीव को सुखी रखने के सिवाय और कुछ भी अच्छा नहीं। मैं ने देखा कि यह भी परमेश्वर की ओर से मिलता है।

25 क्योंकि खाने-पीने और सुख भोगने में मुझ से अधिक समर्थ कौन है?

26 जो मनुष्य परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा है, उसको वह बुद्धि और ज्ञान और आनन्द देता है; परन्तु पापी को वह दु:खभरा काम ही देता है कि वह उसका देने के लिये संचय कर के ढेर लगाए जो परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा हो। यह भी व्यर्थ और वायु को पकड़ना है॥

 सभोपदेशक - अध्याय 3

1 हर एक बात का एक अवसर और प्रत्येक काम का, जो आकाश के नीचे होता है, एक समय है।

2 जन्म का समय, और मरन का भी समय; बोने का समय; और बोए हुए को उखाड़ने का भी समय है;

3 घात करने का समय, और चंगा करने का भी समय; ढा देने का समय, और बनाने का भी समय है;

4 रोने का समय, और हंसने का भी समय; छाती पीटने का समय, और नाचने का भी समय है;

5 पत्थर फेंकने का समय, और पत्थर बटोरने का भी समय; गल लगाने का समय, और गल लगाने से रूकने का भी समय है;

6 ढूंढ़ने का समय, और खो देने का भी समय; बचा रखने का समय, और फेंक देने का भी समय है;

7 फाड़ने का समय, और सीने का भी समय; चुप रहने का समय, और बोलने का भी समय है;

8 प्रेम का समय, और बैर करने का भी समय; लड़ाई का समय, और मेल का भी समय है।

9 काम करने वाले को अधिक परिश्रम से क्या लाभ होता है?

10 मैं ने उस दु:खभरे काम को देखा है जो परमेश्वर ने मनुष्यों के लिये ठहराया है कि वे उस में लगे रहें।

11 उसने सब कुछ ऐसा बनाया कि अपने अपने समय पर वे सुन्दर होते है; फिर उसने मनुष्यों के मन में अनादि-अनन्त काल का ज्ञान उत्पन्न किया है, तौभी काल का ज्ञान उत्पन्न किया है, वह आदि से अन्त तक मनुष्य बूझ नहीं सकता।

12 मैं ने जान लिया है कि मनुष्यों के लिये आनन्द करने और जीवन भर भलाई करने के सिवाय, और कुछ भी अच्छा नहीं;

13 और यह भी परमेश्वर का दान है कि मनुष्य खाए-पीए और अपने सब परिश्रम में सुखी रहे।

14 मैं जानता हूं कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह सदा स्थिर रहेगा; न तो उस में कुछ बढ़ाया जा सकता है और न कुछ घटाया जा सकता है; परमेश्वर ऐसा इसलिये करता है कि लोग उसका भय मानें।

15 जो कुछ हुआ वह इस से पहिले भी हो चुका; जो होने वाला है, वह हो भी चुका है; और परमेश्वर बीती हुई बात को फिर पूछता है।

16 फिर मैं ने संसार में क्या देखा कि न्याय के स्थान में दुष्टता होती है, और धर्म के स्थान में भी दुष्टता होती है।

17 मैं ने मन में कहा, परमेश्वर धर्मी और दुष्ट दोनों का न्याय करेगा, क्योंकि उसके यहां एक एक विषय और एक एक काम का समय है।

18 मैं ने मन में कहा कि यह इसलिये होता है कि परमेश्वर मनुष्यों को जांचे और कि वे देख सकें कि वे पशु-समान हैं।

19 क्योंकि जैसी मनुष्यों की वैसी ही पशुओं की भी दशा होती है; दोनों की वही दशा होती है, जैसे एक मरता वैसे ही दूसरा भी मरता है। सभों की स्वांस एक सी है, और मनुष्य पशु से कुछ बढ़कर नहीं; सब कुछ व्यर्थ ही है।

20 सब एक स्थान मे जाते हैं; सब मिट्टी से बने हैं, और सब मिट्टी में फिर मिल जाते हैं।

21 क्या मनुष्य का प्राण ऊपर की ओर चढ़ता है और पशुओं का प्राण नीचे की ओर जा कर मिट्टी में मिल जाता है? कौन जानता है?

22 सो मैं ने यह देखा कि इस से अधिक कुछ अच्छा नहीं कि मनुष्य अपने कामों में आनन्दित रहे, क्योंकि उसका भाग्य यही है; कौन उसके पीछे होने वाली बातों को देखने के लिये उसको लौटा लाएगा?

 सभोपदेशक - अध्याय 4

1 तब मैं ने वह सब अन्धेर देखा जो संसार में होता है। और क्या देखा, कि अन्धेर सहने वालों के आंसू बह रहे हैं, और उन को कोई शान्ति देने वाला नहीं! अन्धेर करने वालों के हाथ में शक्ति थी, परन्तु उन को कोई शान्ति देने वाला नहीं था।

2 इसलिये मैं ने मरे हुओं को जो मर चुके हैं, उन जीवतों से जो अब तक जीवित हैं अधिक सराहा;

3 वरन उन दोनों से अधिक सुभागी वह है जो अब तक हुआ ही नहीं, न ये बुरे काम देखे जो संसार में होते हैं॥

4 तब में ने सब परिश्रम के काम और सब सफल कामों को देखा जो लोग अपने पड़ोसी से जलन के कारण करते हैं। यह भी व्यर्थ और मन का कुढ़ना है॥

5 मूर्ख छाती पर हाथ रखे रहता और अपना मांस खाता है।

6 चैन के साथ एक मुट्ठी उन दो मुट्ठियों से अच्छा है, जिनके साथ परिश्रम और मन का कुढ़ना हो॥

7 फिर मैं ने धरती पर यह भी व्यर्थ बात देखी।

8 कोई अकेला रहता और उसका कोई नहीं है; न उसके बेटा है, न भाई है, तौभी उसके परिश्रम का अन्त नहीं होता; न उसकी आंखें धन से सन्तुष्ट होती हैं, और न वह कहता है, मैं किस के लिये परिश्रम करता और अपने जीवन को सुखरहित रखता हूं? यह भी व्यर्थ और निरा दु:खभरा काम है।

9 एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है।

10 क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाय उस पर जो अकेला हो कर गिरे और उसका कोई उठाने वाला न हो।

11 फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है?

12 यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका साम्हना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती॥

13 बुद्धिमान लड़का दरिद्र होन पर भी ऐसे बूढ़े और मूर्ख राजा से अधिक उत्तम है जो फिर सम्मति ग्रहण न करे,

14 चाहे वह उसके राज्य में धनहींन उत्पन्न हुआ या बन्दीगृह से निकलकर राजा हुआ हो।

15 मैं ने सब जीवतों को जो धरती पर चलते फिरते हैं देखा कि वे उस दूसरे लड़के के संग हो लिये हैं जो उनका स्थान लेने के लिये खड़ा हुआ।

16 वे सब लोग अनगिनित थे जिन पर वह प्रधान हुआ था। तौभी भविष्य में होने वाले लोग उसके कारण आनन्दित न होंगे। नि:सन्देह यह भी व्यर्थ और मन का कुढ़ना है॥

 सभोपदेशक - अध्याय 5

1 जब तू परमेश्वर के भवन में जाए, तब सावधानी से चलना; सुनने के लिये समीप जाना मूर्खों के बलिदान चढ़ाने से अच्छा है; क्योंकि वे नहीं जानते कि बुरा करते हैं।

2 बातें करने में उतावली न करना, और न अपने मन से कोई बात उतावली से परमेश्वर के साम्हने निकालना, क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं और तू पृथ्वी पर है; इसलिये तेरे वचन थोड़े ही हों॥

3 क्योंकि जैसे कार्य की अधिकता के कारण स्वप्न देखा जाता है, वैसे ही बहुत सी बातों का बोलने वाला मूर्ख ठहरता है।

4 जब तू परमेश्वर के लिये मन्नत माने, तब उसके पूरा करने में विलम्ब न करना; क्यांकि वह मूर्खों से प्रसन्न नहीं होता। जो मन्नत तू ने मानी हो उसे पूरी करना।

5 मन्नत मान कर पूरी न करने से मन्नत का न मानना ही अच्छा है।

6 कोई वचन कहकर अपने को पाप में ने फंसाना, और न ईश्वर के दूत के साम्हने कहना कि यह भूल से हुआ; परमेश्वर क्यों तेरा बोल सुन कर अप्रसन्न हो, और तेरे हाथ के कार्यों को नष्ट करे?

7 क्योंकि स्वप्नों की अधिकता से व्यर्थ बातों की बहुतायत होती है: परन्तु तू परमेश्वर को भय मानना॥

8 यदि तू किसी प्रान्त में निर्धनों पर अन्धेर और न्याय और धर्म को बिगड़ता देखे, तो इस से चकित न होना; क्योंकि एक अधिकारी से बड़ा दूसरा रहता है जिसे इन बातों की सुधि रहती है, और उन से भी ओर अधिक बड़े रहते हैं।

9 भूमि की उपज सब के लिये है, वरन खेती से राजा का भी काम निकलता है।

10 जो रूपये से प्रीति रखता है वह रूपये से तृप्त न होगा; और न जो बहुत धन से प्रीति रखता है, लाभ से: यह भी व्यर्थ है।

11 जब सम्पत्ति बढ़ती है, तो उसके खाने वाले भी बढ़ते हैं, तब उसके स्वामी को इसे छोड़ और क्या लाभ होता है कि उस सम्पत्ति को अपनी आंखों से देखे?

12 परिश्रम करने वाला चाहे थोड़ा खाए, था बहुत, तौभी उसकी नींद सुखदाई होती है; परन्तु धनी के धन के बढ़ने के कारण उसको नींद नहीं आती।

13 मैं ने धरती पर एक बड़ी बुरी बला देखी है; अर्थात वह धन जिसे उसके मालिक ने अपनी ही हानि के लिये रखा हो,

14 और वह किसी बुरे काम में उड़ जाता है; और उसके घर में बेटा उत्पन्न होता है परन्तु उसके हाथ मे कुछ नहीं रहता।

15 जैसा वह मां के पेट से निकला वैसा ही लौट जाएगा; नंगा ही, जैसा आया था, और अपने परिश्रम के बदले कुछ भी न पाएगा जिसे वह अपने हाथ में ले जा सके।

16 यह भी एक बड़ी बला है कि जैसा वह आया, ठीक वैसा ही वह जाएगा; उसे उस व्यर्थ परिश्रम से और क्या लाभ है?

17 केवल इसके कि उसने जीवन भर बेचैनी से भोजन किया, और बहुत ही दु:खित और रोगी रहा और क्रोध भी करता रहा?

18 सुन, जो भली बात मैं ने देखी है, वरन जो उचित है, वह यह कि मनुष्य खाए और पीए और अपने परिश्रम से जो वह धरती पर करता है, अपनी सारी आयु भर जो परमेश्वर ने उसे दी है, सुखी रहे: क्योंकि उसका भाग यही है।

19 वरन हर एक मनुष्य जिसे परमेश्वर ने धन सम्पत्ति दी हो, और उन से आनन्द भोगने और उस में से अपना भाग लेने और परिश्रम करते हुए आनन्द करने को शक्ति भी दी हो- यह परमेश्वर का वरदान है।

20 इस जीवन के दिन उसे बहुत स्मरण न रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर उसकी सुन सुनकर उसके मन को आनन्दमय रखता है॥

 सभोपदेशक - अध्याय 6

1 एक बुराई जो मैं ने धरती पर देखी है, वह मनुष्यों को बहुत भारी लगती है:

2 किसी मनुष्य को परमेश्वर धन सम्पत्ति और प्रतिष्ठा यहां तक देता है कि जो कुछ उसका मन चाहता है उसे उसकी कुछ भी घटी नहीं होती, तौभी परमेश्वर उसको उस में से खाने नहीं देता, कोई दूसरा की उसे खाता है; यह व्यर्थ और भयानक दु:ख है।

3 यदि किसी पुरूष के सौ पुत्र हों, और वह बहुत वर्ष जीवित रहे और उसकी आयु बढ़ जाए, परन्तु न उसका प्राण प्रसन्न रहे और न उसकी अन्तिम क्रिया की जाए, तो मैं कहता हूं कि ऐसे मनुष्य से अधूरे समय का जन्मा हुआ बच्चा उत्तम है।

4 क्योंकि वह व्यर्थ ही आया और अन्धेरे में चला गया, ओर उसका नाम भी अन्धेरे में छिप गया;

5 और न सूर्य को देखा, न किसी चीज को जानने पाया; तौभी इस को उस मनुष्य से अधिक चैन मिला।

6 हां चाहे वह दो हजार वर्ष जीवित रहे, और कुछ सुख भोगने न पाए, तो उसे क्या? क्या सब के सब एक ही स्थान में नहीं जाते?

7 मनुष्य का सारा परिश्रम उसके पेट के लिये होता है तौभी उसका मन नहीं भरता।

8 जो बुद्धिमान है वह मूर्ख से किस बात में बढ़कर है? और कंगाल जो यह जानता है कि इस जीवन में किस प्रकार से चलना चाहिये, वह भी उस से किस बात में बढ़कर है?

9 आंखों से देख लेना मन की चंचलता से उत्तम है: यह भी व्यर्थ और मन का कुढना है।

10 जो कुछ हुआ है उसका नाम युग के आरम्भ से रखा गया है, और यह प्रगट है कि वह आदमी है, कि वह उस से जो उस से अधिक शक्तिमान है झगड़ा नहीं कर सकता है।

11 बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके कारण जीवन और भी व्यर्थ होता है तो फिर मनुष्य को क्या लाभ?

12 क्योंकि मनुष्य के क्षणिक व्यर्थ जीवन में जो वह परछाईं की नाईं बिताता है कौन जानता है कि उसके लिये अच्छा क्या है? क्योंकि मनुष्य को कौन बता सकता है कि उसके बाद दुनिया में क्या होगा?

 सभोपदेशक - अध्याय 7

1 अच्छा नाम अनमोल इत्र से और मृत्यु का दिन जन्म के दिन से उत्तम है।

2 जेवनार के घर जाने से शोक ही के घर जाना उत्तम है; क्योंकि सब मनुष्यों का अन्त यही है, और जो जीवित है वह मन लगाकर इस पर सोचेगा।

3 हंसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुंह पर के शोक से मन सुधरता है।

4 बुद्धिमानों का मन शोक करने वालों के घर की ओर लगा रहता है परन्तु मूर्खों का मन आनन्द करने वालों के घर लगा रहता है।

5 मूर्खों के गीत सुनने से बुद्धिमान की घुड़की सुनना उत्तम है।

6 क्योंकि मूर्ख की हंसी हांडी के नीचे जलते हुए कांटो ही चरचराहट के समान होती है; यह भी व्यर्थ है।

7 निश्चय अन्धेर से बुद्धिमान बावला हो जाता है; और घूस से बुद्धि नाश होती है।

8 किसी काम के आरम्भ से उसका अन्त उत्तम है; और धीरजवन्त पुरूष गर्वी से उत्तम है।

9 अपने मन में उतावली से क्रोधित न हो, क्योंकि क्रोध मूर्खों ही के हृदय में रहता है।

10 यह न कहना, बीते दिन इन से क्यों उत्तम थे? क्योंकि यह तू बुद्धिमानी से नहीं पूछता।

11 बुद्धि बपौती के साथ अच्छी होती है, वरन जीवित रहने वालों के लिये लाभकारी है।

12 क्योंकि बुद्धि की आड़ रूपये की आड़ का काम देता है; परन्तु ज्ञान की श्रेष्टता यह है कि बुद्धि से उसके रखने वालों के प्राण की रक्षा होती है।

13 परमेश्वर के काम पर दृष्टि कर; जिस वस्तु को उसने टेढ़ा किया हो उसे कौन सीधा कर सकता है?

14 सुख के दिन सुख मान, और दु:ख के दिन सोच; क्योंकि परमेश्वर ने दोनों को एक ही संग रखा है, जिस से मनुष्य अपने बाद होने वाली किसी बात को न बूझ सके।

15 अपने व्यर्थ जीवन में मैं ने यह सब कुछ देखा है; कोई धर्मी अपने धर्म का काम करते हुए नाश हो जाता है, और दुष्ट बुराई करते हुए दीर्घायु होता है।

16 अपने को बहुत धर्मी न बना, और न अपने को अधिक बुद्धिमान बना; तू क्यों अपने ही नाश का कारण हो?

17 अत्यन्त दुष्ट भी न बन, और न मूर्ख हो; तू क्यों अपने समय से पहिले मरे?

18 यह अच्छा है कि तू इस बात को पकड़े रहे; ओर उस बात पर से भी हाथ न उठाए; क्योंकि जो परमेश्वर का भय मानता है वह इन सब कठिनाइयों से पार जो जाएगा॥

19 बुद्धि ही से नगर के दस हाकिमों की अपेक्षा बुद्धिमान को अधिक सामर्थ प्राप्त होती है।

20 नि:सन्देह पृथ्वी पर कोई ऐसा धर्मी मनुष्य नहीं जो भलाई ही करे और जिस से पाप न हुआ हो॥

21 जितनी बातें कही जाएं सब पर कान न लगाना, ऐसा न हो कि तू सुने कि तेरा दास तुझी को शाप देता है;

22 क्योंकि तू आप जानता है कि तू ने भी बहुत बेर औरों को शाप दिया है॥

23 यह सब मैं ने बुद्धि से जांच लिया है; मैं ने कहा, मैं बुद्धिमान हो जाऊंगा; परन्तु यह मुझ से दूर रहा।

24 वह जो दूर और अत्यन्त गहिरा है, उसका भेद कौन पा सकता है?

25 मैं ने अपना मन लगाया कि बुद्धि के विषय में जान लूं; कि खोज निकालूं और उसका भेद जानूं, और कि दुष्टता की मूर्खता और मूर्खता जो निरा बावलापन है जानूं।

26 और मैं ने मृत्यु से भी अधिक दृ:खदाई एक वस्तु पाई, अर्थात वह स्त्री जिसका मन फन्दा और जाल है और जिसके हाथ हथकडिय़ां है; (जिस पुरूष से परमेश्वर प्रसन्न है वही उस से बचेगा, परन्तु पापी उसका शिकार होगा)

27 देख, उपदेशक कहता है, मैं ने ज्ञान के लिये अलग अलग बातें मिला कर जांचीं, और यह बात निकाली,

28 जिसे मेरा मन अब तक ढूंढ़ रहा है, परन्तु नहीं पाया। हजार में से मैं ने एक पुरूष को पाया, परन्तु उन में एक भी स्त्री नहीं पाई।

29 देखो, मैं ने केवल यह बात पाई है, कि परमेश्वर ने मनुष्य को सीधा बनाया, परन्तु उन्होंने बहुत सी युक्तियां निकाली हैं॥

 सभोपदेशक - अध्याय 8

1 बुद्धिमान के तुल्य कौन है? और किसी बात का अर्थ कौन लगा सकता है? मनुष्य की बुद्धि के कारण उसका मुख चमकता, और उसके मुख की कठोरता दूर हो जाती है।

2 मैं तुझे सम्मति देता हूं कि परमेश्वर की शपथ के कारण राजा की आज्ञा मान।

3 राजा के साम्हने से उतावली के साथ न लौटना और न बुरी बात पर हठ करना, क्योंकि वह जो कुछ चाहता है करता है।

4 क्योंकि राजा के वचन में तो सामर्थ्य रहती है, और कौन उस से कह सकता है कि तू क्या करता है?

5 जो आज्ञा को मानता है, वह जोखिम से बचेगा, और बुद्धिमान का मन समय और न्याय का भेद जानता है।

6 क्योंकि हर एक विषय का समय और नियम होता है, यद्यिप मनुष्य का दु:ख उसके लिये बहुत भारी होता है।

7 वह नहीं जानता कि क्या होने वाला है, और कब होगा? यह उसको कौन बता सकता है?

8 ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसका वश प्राण पर चले कि वह उसे निकलते समय रोक ले, और न कोई मृत्यु के दिन पर अधिकारी होता है; और न उसे लड़ाई से छृट्टी मिल सकती है, और न दुष्ट लोग अपनी दुष्टता के कारण बच सकते हैं।

9 जितने काम धरती पर किए जाते हैं उन सब को ध्यानपूर्वक देखने में यह सब कुछ मैं ने देखा, और यह भी देखा कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अधिकारी हो कर अपने ऊपर हानि लाता है॥

10 तब मैं ने दुष्टों को गाड़े जाते देखा; अर्थात उनकी तो कब्र बनी, परन्तु जिन्होंने ठीक काम किया था वे पवित्रस्थान से निकल गए और उनका स्मरण भी नगर में न रहा; यह भी व्यर्थ ही है।

11 बुरे काम के दण्ड की आज्ञा फुर्ती से नहीं दी जाती; इस कारण मनुष्यों का मन बुरा काम करने की इच्छा से भरा रहता है।

12 चाहे पापी सौ बार पाप करे अपने दिन भी बढ़ाए, तौभी मुझे निश्चय है कि जो परमेश्वर से डरते हैं और अपने तईं उसको सम्मुख जानकर भय से चलते हैं, उनका भला ही होगा;

13 परन्तु दुष्ट का भला नहीं होने का, और न उसकी जीवनरूपी छाया लम्बी होने पाएगी, क्योंकि वह परमेश्वर का भय नहीं मानता॥

14 एक व्यर्थ बात पृथ्वी पर होती है, अर्थात ऐसे धर्मी हैं जिनकी वह दशा होती है जो दुष्टों की होनी चाहिये, और ऐसे दुष्ट हैं जिनकी वह दशा होती है हो धर्मियों की होनी चाहिये। मैं ने कह कि यह भी व्यर्थ ही है।

15 तब मैं ने आनन्द को सराहा, क्योंकि सूर्य के नीचे मनुष्य के लिये खाने-पीने और आनन्द करने को छोड़ और कुछ भी अच्छा नहीं, क्योंकि यही उसके जीवन भर जो परमेश्वर उसके लिये धरती पर ठहराए, उसके परिश्रम में उसके संग बना रहेगा॥

16 जब मैं ने बुद्धि प्राप्त करने और सब काम देखने के लिये जो पृथ्वी पर किए जाते हैं अपना मन लगाया, कि कैसे मनुष्य रात-दिन जागते रहते हैं;

17 तब मैं ने परमेश्वर का सारा काम देखा जो सूर्य के नीचे किया जाता है, उसकी थाह मनुष्य नहीं पा सकता। चाहे मनुष्य उसकी खोज में कितना भी परिश्रम करे, तौभी उसको न जान पाएगा; और यद्यिप बुद्धिमान कहे भी कि मैं उसे समझूंगा, तौभी वह उसे न पा सकेगा॥

 सभोपदेशक - अध्याय 9

1 यह सब कुछ मैं ने मन लगाकर विचारा कि इन सब बातों का भेद पाऊं, कि किस प्रकार धर्मी और बुद्धिमान लोग और उनके काम परमेश्वर के हाथ में हैं; मनुष्य के आगे सब प्रकार की बातें हैं परन्तु वह नहीं जानता कि वह प्रेम है व बैर।

2 सब बातें सभों को एक समान होती है, धर्मी हो या दुष्ट, भले, शुद्ध या अशुद्ध, यज्ञ करने और न करने वाले, सभों की दशा एक ही सी होती है। जैसी भले मनुष्य की दशा, वैसी ही पापी की दशा; जैसी शपथ खाने वाले की दशा, वैसी ही उसकी जो शपथ खाने से डरता है।

3 जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है उस में यह एक दोष है कि सब लोगों की एक सी दशा होती है; और मनुष्यों के मनों में बुराई भरी हुई है, और जब तक वे जीवित रहते हैं उनके मन में बावलापन रहता है, और उसके बाद वे मरे हुओं में जा मिलते हैं।

4 उसको परन्तु जो सब जीवतों में है, उसे आशा है, क्योंकि जीवता कुत्ता मरे हुए सिंह से बढ़कर है।

5 क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उन को कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है।

6 उनका प्रेम और उनका बैर और उनकी डाह नाश हो चुकी, और अब जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है उस में सदा के लिये उनका और कोई भाग न होगा॥

7 अपने मार्ग पर चला जा, अपनी रोटी आनन्द से खाया कर, और मन में सुख मान कर अपना दाखमधु पिया कर; क्योंकि परमेश्वर तेरे कामों से प्रसन्न हो चुका है॥

8 तेरे वस्त्र सदा उजले रहें, और तेरे सिर पर तेल की घटी न हो॥

9 अपने व्यर्थ जीवन के सारे दिन जो उसने सूर्य के नीचे तेरे लिये ठहराए हैं अपनी प्यारी पत्नी के संग में बिताना, क्योंकि तेरे जीवन और तेरे परिश्रम में जो तू सूर्य के नीचे करता है तेरा यही भाग है।

10 जो काम तुझे मिले उसे अपनी शक्ति भर करना, क्योंकि अधोलोक में जहां तू जाने वाला है, न काम न युक्ति न ज्ञान और न बुद्धि है॥

11 फिर मैं ने धरती पर देखा कि न तो दौड़ में वेग दौड़ने वाले और न युद्ध में शूरवीर जीतते; न बुद्धिमान लोग रोटी पाते न समझ वाले धन, और न प्रवीणों पर अनुग्रह होता है, वे सब समय और संयोग के वश में है।

12 क्योंकि मनुष्य अपना समय नहीं जानता। जैसे मछलियां दुखदाई जाल में बझतीं और चिडिय़े फन्दे में फंसती हैं, वैसे ही मनुष्य दुखदाई समय में जो उन पर अचानक आ पड़ता है, फंस जाते हैं॥

13 मैं ने सूर्य के नीचे इस प्रकार की बुद्धि की बात भी देखी है, जो मुझे बड़ी जान पड़ी।

14 एक छोटा सा नगर था, जिस में थोड़े ही लोग थे; और किसी बड़े राजा ने उस पर चढ़ाई कर के उसे घेर लिया, और उसके विरुद्ध बड़े बड़े धुस बनवाए।

15 परन्तु उस में एक दरिद्र बुद्धिमान पुरूष पाया गया, और उसने उस नगर को अपनी बुद्धि के द्वारा बचाया। तौभी किसी ने उस दरिद्र का स्मरण न रखा।

16 तब मैं ने कहा, यद्यपि दरिद्र की बुद्धि तुच्छ समझी जाती है और उसका वचन कोई नहीं सुनता तौभी पराक्रम से बुद्धि उत्तम है।

17 बुद्धिमानों के वचन जो धीमे धीमे कहे जाते हैं वे मूर्खों के बीच प्रभुता करने वाले के चिल्ला चिल्लाकर कहने से अधिक सुने जाते हैं।

18 लड़ाई के हथियारों से बुद्धि उत्तम है, परन्तु एक पापी बहुत भलाई नाश करता है॥

 सभोपदेशक - अध्याय 10

1 मरी हुई मक्खियों के कारण गन्धी का तेल सड़ने और बसाने लगता है; और थोड़ी सी मूर्खता बुद्धि और प्रतिष्ठा को घटा देती है।

2 बुद्धिमान का मन उचित बात की ओर रहता है परन्तु मूर्ख का मन उसके विपरीत रहता है।

3 वरन जब मूर्ख मार्ग पर चलता है, तब उसकी समझ काम नहीं देती, अैर वह सब से कहता है, मैं मूर्ख हूं॥

4 यदि हाकिम का क्रोध तुझ पर भड़के, तो अपना स्थान न छोड़ना, क्योंकि धीरज धरने से बड़े बड़े पाप रुकते हैं॥

5 एक बुराई है जो मैं ने सूर्य के नीचे देखी, वह हाकिम की भूल से होती है:

6 अर्थात मूर्ख बड़ी प्रतिष्ठा के स्थानों में ठहराए जाते हैं, और धनवाल लोग नीचे बैठते हैं।

7 मैं ने दासों को घोड़ों पर चढ़े, और रईसों को दासों की नाईं भूमि पर चलते हुए देखा है॥

8 जो गड़हा खोदे वह उस में गिरेगा और जो बाड़ा तोड़े उसको सर्प डसेगा।

9 जो पत्थर फोड़े, वह उन से घायल होगा, और जो लकड़ी काटे, उसे उसी से डर होगा।

10 यदि कुल्हाड़ा थोथा हो और मनुष्य उसकी धार को पैनी न करे, तो अधिक बल लगाना पड़ेगा; परन्तु सफल होने के लिये बुद्धि से लाभ होता है।

11 यदि मंत्र से पहिले सर्प डसे, तो मंत्र पढ़ने वाले को कुछ भी लाभ नहीं॥

12 बुद्धिमान के वचनों के कारण अनुग्रह होता है, परन्तु मूर्ख अपने वचनों के द्वारा नाश होते हैं।

13 उसकी बात का आरम्भ मूर्खता का, और उनका अन्त दुखदाई बावलापन होता है।

14 मूर्ख बहुत बातें बढ़ा कर बोलता है, तौभी कोई मनुष्य नहीं जानता कि क्या होगा, और कौन बता सकता है कि उसके बाद क्या होने वाला है?

15 मूर्ख को परिश्रम से थकावट ही होती है, यहां तक कि वह नहीं जानता कि नगर को कैसे जाए॥

16 हे देश, तुझ पर हाय जब तेरा राजा लड़का है और तेरे हाकिम प्रात:काल भोज करते हैं!

17 हे देश, तू धन्य है जब तेरा राजा कुलीन है; और तेरे हाकिम समय पर भोज करते हैं, और वह भी मतवाले होने को नहीं, वरन्त बल बढ़ाने के लिये!

18 आलस्य के कारण छत की कडिय़ां दब जाती हैं, और हाथों की सुस्ती से घर चूता है।

19 भोज हंसी खुशी के लिये किया जाता है, और दाखमधु से जीवन को आनन्द मिलता है; और रूपयों से सब कुछ प्राप्त होता है।

20 राजा को मन में भी शाप न देना, न धनवान को अपने शयन की कोठरी में शाप देना; क्योंकि कोई आकाश का पक्षी तेरी वाणी को ले जाएगा, और कोई उड़ाने वाला जन्तु उस बात को प्रगट कर देगा॥

 सभोपदेशक - अध्याय 11

1 अपनी रोटी जल के ऊपर डाल दे, क्योंकि बहुत दिन के बाद तू उसे फिर पाएगा।

2 सात वरन आठ जनों को भी भाग दे, क्योंकि तू नहीं जानता कि पृथ्वी पर क्या विपत्ति आ पकेगी।

3 यदि बादल जल भरे हैं, तब उसको भूमि पर उण्डेल देते हैं; और वृक्ष चाहे दक्खिन की ओर गिरे या उत्तर की ओर, तौभी जिस स्थान पर वृक्ष गिरेगा, वहीं पड़ा रहेगा।

4 जो वायु को ताकता रहेगा वह बीज बोने न पाएगा; और जो बादलों को देखता रहेगा वह लवने न पाएगा।

5 जैसे तू वायु के चलने का मार्ग नहीं जानता और किस रीति से गर्भवती के पेट में हड्डियां बढ़ती हैं, वैसे ही तू परमेश्वर का काम नहीं जानता जो सब कुछ करता है॥

6 भोर को अपना बीज बो, और सांझ को भी अपना हाथ न रोक; क्योंकि तू नहीं जानता कि कौन सफल होगा, यह वा वह वा दोनों के दोनों अच्छे निकलेंगे।

7 उजियाला मनभावना होता है, और धूप के देखने से आंखों को सुख होता है।

8 यदि मनुष्य बहुत वर्ष जीवित रहे, तो उन सभों में आनन्दित रहे; परन्तु यह स्मरण रखे कि अन्धियारे से दिन भी बहुत होंगे। जो कुछ होता है वह व्यर्थ है॥

9 हे जवान, अपनी जवानी में आनन्द कर, और अपनी जवानी के दिनों के मगन रह; अपनी मनमानी कर और अपनी आंखों की दृष्टि के अनुसार चल। परन्तु यह जान रख कि इन सब बातों के विषय में परमेश्वर तेरा न्याय करेगा॥

10 अपने मन से खेद और अपनी देह से दु:ख दूर कर, क्योंकि लड़कपन और जवानी दोनों व्यर्थ हैं।

 सभोपदेशक - अध्याय 12

1 अपनी जवानी के दिनों में अपने सृजनहार को स्मरण रख, इस से पहिले कि विपत्ति के दिन और वे वर्ष आएं, जिन में तू कहे कि मेरा मन इन में नहीं लगाता।

2 इस से पहिले कि सूर्य और प्रकाश और चन्द्रमा और तारागण अंधेरे हो जाएं, और वर्षा होने के बादल फिर घिर जाएं;

3 उस समय घर के पहरूए कांपेंगे, और बलवन्त झुक जायंगे, और पीसनहारियां थोड़ी रहने के कारण काम छोड़ देंगी, और झरोखों में से देखने वालियां अन्धी हो जाएगी,

4 और सड़क की ओर के किवाड़ बन्द होंगे, और चक्की पीसने का शब्द धीमा होगा, और तड़के चिडिय़ा बोलते ही एक उठ जाएगा, और सब गाने वालियों का शब्द धीमा हो जाएगा।

5 फिर जो ऊंचा हो उस से भय खाया जाएगा, और मार्ग में डरावनी वस्तुएं मानी जाएंगी; और बादाम का पेड़ फूलेगा, और टिड्डी भी भारी लगेगी, और भूख बढ़ाने वाला फल फिर काम न देगा; क्योंकि मनुष्य अपने सदा के घर को जायेगा, और रोने पीटने वाले सड़क सड़क फिरेंगे।

6 उस समय चान्दी का तार दो टुकड़े हो जाएगा और सोने का कटोरा टूटेगा; और सोते के पास घड़ा फूटेगा, और कुण्ड के पास रहट टूट जाएगा,

7 जब मिट्टी ज्यों की त्यों मिट्टी में मिल जाएगी, और आत्मा परमेश्वर के पास जिसने उसे दिया लौट जाएगी।

8 उपदेशक कहता है, सब व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।

9 उपदेशक जो बुद्धिमान था, वह प्रजा को ज्ञान भी सिखाता रहा, और ध्यान लगाकर और पूछपाछ कर के बहुत से नीतिवचन क्रम से रखता था।

10 उपदेशक ने मनभावने शब्द खोजे और सीधाई से ये सच्ची बातें लिख दीं॥

11 बुद्धिमानों के वचन पैनों के समान होते हैं, और सभाओं के प्रधानों के वचन गाड़ी हुई कीलों के समान हैं, क्योंकि एक ही चरवाहे की ओर से मिलते हैं।

12 हे मेरे पुत्र, इन्ही में चौकसी सीख। बहुत पुस्तकों की रचना का अन्त नहीं होता, और बहुत पढ़ना देह को थका देता है॥

13 सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है।

14 क्योंकि परमेश्वर सब कामों और सब गुप्त बातों का, चाहे वे भली हों या बुरी, न्याय करेगा॥

 

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